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प्रा. गुप्ता के मुहावरे और लोकोक्तियाँ
करूणा झा

– करूणा झा  मुहावरे और लोकोक्तियाँ हमारे जीवन की हक़ीक़तों का सार- संक्षेपण है. आदिकाल से जब से भाषा का जन्म हुआ और जीवन की गतियों-विसंगतियों को व्यक्त करने की प्रक्रिया शुरू हुई तब से ही संभवतः मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रचलन हुआ. हमारे ऋषियों-मुनियों और तत्वज्ञानियों ने जीवन के हर परिस्थिति का गंभीराता से अध्ययन कर फिर उसके अनुसार ऐसे मुहावरे गढ़े जो समय, साल की परिधि से बाहर निकल कर कालजयी हो गए. सदियों पहले गढ़े गए मुहाबरे अगर आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं तो समझ सकते हैं कि गढ़ने वाले की दूरदर्शिता और जीवन के प्रति समझ कितनी गहरी थी.

मुहावरे और लोकोक्तियाँ अंचल और बोली अनुसार गढ़ी गई हैं और समग्रता में देखें तो सार्वभौम जीवन की समस्याओं को रेखांकित करती हुई गढ़ी गई हैं. इसलिए इनमें जीवन का अक्स उभरता है. हर कोई इनमें अपने जीवन की दिशा और दशा का आकलन कर लेता है.

जीवन है, जगत है तो संगति-विसंगति भी समानांतर है. प्रकृति, पर्यावरण, नदी, झरना, झील, ताल, तलैया, पोखर, ईनार,कुआं सब हैं, खेती-पथारी है तो समय के साथ इनमें कम-वेशी का अनुपात भी है. वर्षों की प्राकृतिक गति-प्रकृति को देखकर-समझकर, अनुभव की कसौटी पर परखकर एक बात कही जाती है और तब वह सदा-सदा के लिए अमर हो जाती है.

हमारे समाज और जीवन में प्रचलित मुहावरों और लोकोक्तियों को समेटना बहुत मुश्किल काम है. जीवन की हर स्थिति पर कहे गए मुहावरों और लोकोक्तियों को समग्रता में एक साथ लाने की कोशिश आंशिक सफल हो सकती है पूर्णतः यह असंभव है क्योंकि बदलते समय और परिवेश में बहुत से मुहावरों और लोकोक्तियों को नया रूप दे दिया गया है. फिर भी किसी लेखक ने अगर अथक मेहनत और लगन से इस कार्य को करने का बीड़ा उठाया है तो बधाई बनती है.

मैं इस संकलन के लेखक/ सम्पादक श्री प्रा. सुरेन्द्र प्र. गुप्ता को व्यक्तिगत और सामाजिक रूप से बधाई देना चाहती हूँ जिन्होनें इस महत्वपूर्ण विधा को लोगों के सामने लाने का स्तुत्य प्रयास किया है. आम जीवन में प्रचलित ऐसे बहुत से मुहावरे और लोकोक्ति पुनः लोगों के जेहन में उग आयेंगे जिनको समय के साथ भुला दिया गया था या जो प्रचालन से बाहर होने लगे थे.

लेखकों द्वारा ऐसा प्रयास हमेशा समीचीन है क्योंकि उनका कार्य समाज को जाग्रत करना है. अतीत को वर्तमान से जोड़ना है और सशक्त विधा को बार-बार समाज के सामने उपस्थित कर उनकी महत्ता को रेखांकित करना भी है.

पुस्तकें समाज के लिये दर्पण होती है । उपयुक्त पुस्तकों के रचना के माध्यम से हमारा समाज फलीभूत और परिष्कृत होता है । किसी भी लेखनी की यह विशेषता होती है कि वो समाज की गतिविधि पर केन्द्रित हो । यह विद्या सबों मे नही होती है । जिसमे होती है वो वही प्रगतिशील और जागरुक लेखक है ।

किसी भी साहित्य की रचना में मुहावरे, लोकोक्तिया व्यंग्यात्मक कथ्य, घटनाक्रम लेखन शैली, ब्याकरण का बडा महत्वपूर्ण स्थान होता है । साहित्य लेखन के क्रम में यदि मुहावरे, लोकोक्ति, जनबोली आदि का प्रयोग हो तो वो रचना सर्वगुण सम्पन्न पठन योग्य और आनन्द को अनुभूति प्रदान करनेवाली होती है, जिसे पढकर पाठक हर्षादिभोर हो स्वयं को रोमांचित अनुभव करता है । वास्तव में साहित्य सृजन में लोकोक्ति और मुहावरों का प्रयोग मानो रचना मे चार चाँद लगा देता है । मुहावरों के माध्यम से हम कम शब्दों मे अपनी बात रख सकते है या, उसे अप्रत्यक्ष रुप में प्रस्तुत करते है । इससे वाक्यांश की सुन्दरता और श्रृंगारकता में बढोतरी तो होती ही है, पाठक गण उन मुहावरों मे छिपे शब्दो के ढेर में जाकर कुछ नयापन का अनुभव करते हैं ।

विश्व की सभी भाषओं में लोको वित्तयो का प्रचलन है । प्रत्येक समाज में प्रचलित लोकोवित्तयाँ अलिखित कानुन के रुपमें मानी गई है । मनुष्य अपनी बात का अधिक प्रभावपुर्ण बनाने के लिए उनका उपयोग करता है । लाकोवित्त शब्द लोक + उक्ति के यो से निर्मित हुआ है । मुहावरा एक ऐसा वाक्यांश होता है जिसके प्रयोग से अभिव्यक्ती में अभिवृद्धि होती हे । लाकोवित्त का दुसरा नाम कहावत भी है । लाकोवित्त अपने आप में पुर्ण होती हे । मुहावरे हमारी तीव्र ऊदयानुभूति को अभिव्यक्त करने में भि सहायक होते हैं । इनके प्रयोग से भाषा को प्रभावशाली मनमोहक तथा प्रवाहमयी बनाने में सहायता मिलती है । सदियों से मुहावरे का प्रयोग होता आया है । यह कहना गलत नही होगाकि मुहावरेके बिना भाषा अप्रकृतिक तथा निर्जीव जान पडती है ।

            इसी सन्दर्भ में प्रा. सुरेन्द्र प्र. गुप्ता द्धारा लिखित पुस्तक मुहावरे और लाकोवित्तयाँ बहुत ही उपयोगी साबित हो सकती है । उन्होनें जो मुहावरों तथा लाकोवित्तयों का संग्रह किया है, उससे नेपाल में हिन्दी भाषा, पाठ्यक्रम में और बल मिलेगा । हालाकि मेरे हिसाब से यदि थोडी स् िऔर बारिकी की जरुरत कही कही मुझे महसुस हुई, परन्तु ये पुस्तक अपने आप में पुर्णतः परिपुर्ण है । तथा प्रा. सुरेन्द्र गुप्ता जी का यह प्रयास अद्भूत तथा सराहनीय है । निकट भविष्यमें उनकी लेखनी से और भी रचनायें प्रकाशित हो, हिन्दी के क्षेत्र में उनकी कलम हमेशा गतिशील रहे, और हिन्दी साहित्य में पथ–प्रर्दशक का काम करती रहे, इसी आशा और विश्वास के साथ उनको उज्जवल भविष्य की कामना करती हूँ ।

राजविराज, सप्तरी, नेपाल