विद्यानन्द वेदर्दी
हिरनीके चाल सन अहाँ चलल नै करू
कि लोग हेतै बताह,एना सजल नै करू॥
दाँत निकालिके चौवनीया मुस्कान दै’छी,
बोली अमृतए भरल,नित बजल नै करू॥
नेहक आगि पसरि कतेके हियामे लागत,
रातिओमे भगजोगनि सन बरल नै करू॥
कहब कि आजुक जुग छै बड्ड बैमनमा,
छी मासूम,नादानी सगरो करल नै करू॥
पानि सन अछि जिनगी ‘विद्यानन्द’ के,
मिसरी वनि अनेरे ‘राधा’ गलल नै करू॥
राजविराज,सप्तरी
हाल:विराटनगर, मोरङ्ग