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क्या जनकपुर में कोई मानव-समाज है ?

जनकपुर ऐसी जगह है जहाँ पर आज बीच सडक पर सच में जानकी जी स्वयं का चीरहरण होता रहा, तो भी यहाँ के कोई दुकानदार, नागरिक समाज या जनता निकलकर उसके खिलाफ एक बात भी बोलने की जरूरत नहीं समझेगी, विरोध करने या रोकने की कोशिस करने की बात तो दूर ! कोई न कोई बहाना उन्हें मिल ही जाएगा ! कहेगा, राम ने जिसे त्याग कर दिया है, उसे हम कैसे बचाएँ ? या कहेगा, जब सीता की चरित्र पर स्वयं साक्षात राम जी को शंका है, तो हम क्यों बचाएँ ? अपनी अकर्मण्यता छुपाने इसी तरह अनेकों कारण दे सकते हैं।

इस सन्दर्भ में जनकपुर के ही बहुत ही बड़े विद्वान प्रोफेसर डा. सुकदेव साह, जो अमेरिका में रहते आए हैं और वहाँ IMF में भी काम कर चुके हैं, उनकी बातें बार-बार याद आती रहती है। पिछले १०-१२ वर्षों से उनके लेख पढता रहा हूँ, और वे डा. लक्ष्मी नारायण झा की गिरफ्तारी का जिक्र बहुत बार करते हैं और जनकपुर पर अपना आक्रोश बार-बार व्यक्त करते रहते हैं। वे बार-बार लिखते हैं कि: जब नेपाली सुरक्षाकर्मियों ने डा. लक्ष्मी नारायण झा को उनके क्लीनीक से उठा लिया, तो जनकपुर की जनता खड़े होकर तमाशा देखती रही, एक भी आदमी बोलने तक भी आगे नहीं आया, बस मुर्दा लाश की तरह देखती रही। ऐसी जनता से क्या अपेक्षा करना ?

हो सकता है डा. लक्ष्मी नारायण झा उनके दोस्तों में से हो, पर उस घटना का गहरा प्रभाव डा. सुखदेव साह पर रहा है, उस घटना को वह बहुत ही ऐतिहासिक मानते हैं और मुझे भी वे बार-बार इस घटना का उल्लेख करके सार्वजनिक रुप में ही वे सचेत कराते रहे हैं कि: तुम्हें भी सेना/पुलिस उठाकर ले जाएगी, और ये मधेशिया सब ऐसे ही तमाशा देखते रहेंगे, उसी में मजे लेंगे ! इन सबके लिए मरना बेकार है !

इस बार अगहन में निर्वाचन के समय में डा. सुकदेव साह जनकपुर आए थे। वृद्ध हैं; चलना फिरना बहुत ही मुश्किल होता है, किसी सहयोगी को लेकर ही चलते हैं, पर इतनी कठिनाई लेकर भी वे मुझसे मिलने जनकपुर निवास तक आए। भेटघाट में उन्होंने फिर वही बात दोहराई: देखो, जिस मधेशिया के लिए तुम मरते हो, जिसके लिए ऐसी जेल में खुद को कैद करके रखे हो, उन्हीं मधेशियों में से एक भी बोलने तक आगे नहीं आएगा, जब तुम्हें यहाँ से उठाकर पुलिस ले जाएगी !

संयोग देखिए, उसके ३-४ दिन बाद ही, पुलिस दिनदहाड़े जनकपुर निवास के ताला तोड़कर मुझे उठाकर ले गई और सच में प्रतिवाद में क्या जिज्ञासा में भी एक शब्द बोलने वाला वहाँ पर कोई नहीं था ! जनकपुर हिरासत में ही ७ दिन रहा, पर कोई मधेशी पत्रकार या मानवअधिकारकर्मी देखने तक नहीं आए ! डा. सुकदेव साह ने सुना तो जैसे-तैसे अपने सहयोगी को लेकर हिरासत में मिलने चले, उसी दिन अदालत में उपस्थित करने के लिए पुलिस मुझे जिप्रका से बाहर निकाल रही थी। वहीं गेट पर मतगणना को सुनने के लिए करीब ५००-१००० लोग जमा थे और बहुत सारे लोग जाने-पहचाने भी थे। परंतु किसी के पास इतनी हिम्मत या जरूरत नहीं थी कि मुझे देखकर अभिवादन में ‘जय मधेश’ भी कह सके, या हाथ भी उपर उठा सके ! और यह सब पास में ही बैठे डा. सुखदेव साह निहार रहे थे और अपने हाइपोथेसिस सच्चाई में बदलते देख रहे थे। उनकी नजर में वहाँ पर दूसरा इतिहास रचा जा रहा था। पर वह वीरता का इतिहास नहीं था।

पर मेरे लिए वह नयाँ न था। मेरे सम्बन्ध में तो जनकपुर का इतिहास उससे पहले ही बन चुका था। जब २०७३ माघ २ गते मुझे निवास से ताले को तोड़कर ही गिरफ्तार किया गया, और मेरी पत्नी और छोटे-छोटे बच्चों के साथ दुर्व्यवहार किया गया, वे चिल्लाते रहे, तो भी जनकपुर के एक भी आदमी के मुँह में लब्ज नहीं था, हिम्मत की बात क्या करेंगे ? वे मूकदर्शक बने रहे, अपने दुकान चलाते रहे, अपना रास्ता नापते रहे। जो दो-चार थे, डर से वे बहुत ही दूर खड़े थे। कोई फोटो भी खींचते या जो मैं कहना चाहता था वह भी रेकर्ड कर लेते, इतनी भी हिम्मत किसी में नहीं थी।

परन्तु मैं अब भी आशावादी हूँ, क्योंकि जनकपुर का जो गौरवमय इतिहास है, उसे आजकी विकृति, मानवताहीनता और असंवेदनशीलता मिटा नहीं सकती। हाँ सच है, कि जनकपुर दो ही भाषा समझती है: पैसा और जाति की। जहाँ जाओ, जो करो, जनकपुर में हरेक का दिमाग इन्हीं दो चीजों से प्री-अकूपाइड है। अपने गेट के अन्दर जाने देने से पहले या चाय पिलाने से पहले लोगों से यहाँ नाम नहीं, पहले जाति पुछी जाती है। पहली बार देखा कि किसी बाबा या पूजारी से प्रसाद लेते समय भी पहले उनसे जाति पुछी जाती है। परंतु जनकपुर की वास्तविक पहचान वह नहीं है। “न त्वं विप्रादिको वर्ण: नाश्रमी नाक्षगोचर:” कहके महाघोषणा अष्टावक्र ने यहीं से की थी। महर्षि से तत्वज्ञान सुनने के लिए राजा जनक ने अपने राजभवन के भण्डारागार, कोषागार, आयुधागार सभी आग में जलने से बेफिक्र बने रहे और ज्ञान-आर्जन में लगे रहे। यह वह ज्ञानभूमि पावनभूमि है। तो वह गरिमा लौटना ही है, वह वास्तविक पहचान हमें लौटाना ही है।

और मैं क्यों आशावादी हूँ ? क्यों की मेरे पास प्रमाण और स्वयं का अनुभव है। जब जनकपुर में पहली और दूसरी बार गिरफ्तारी हुई, तो जनकपुर के लोग हमें **देखने** तक से डरते थे, दुकान व सडक से वह नजर उठाकर भी नहीं देखते थे चाहे उनके बगल से ही पुलिस मुझे क्यों न ले जा रही हो ! वह विचित्र था, क्योंकि किसी अन्कन्टार पहाड से होकर भी गुजरता हूँ, तो भी वहाँ के पहाडी लोग मजे से अभिवादन करते हैं, पास आकर हाथ मिलाते हैं, सेल्फी खिंचते है, १०-२० आदमी जमा हो जाते हैं, परंतु जनकपुर में नहीं ! लेकिन तीसरी बार जब इसी अगहन २१ गते गिरफ्तारी हुई और जब ७ दिन हिरासत में रहने के बाद निकला, तो समर्थकों ने कहा कि चलो पूरे जनकपुर में नारा लगवा देते हैं और जनकपुर की गली-गली में “आजादी” के नारे गुञ्यमान होने लगे। उस दिन लोग नजर उठाकर सहमे-सहमे ही सही देखने लगे, और कोई-कोई दुकान में बैठेबैठे पूरा तो नहीं परंतु थोडा-थोडा हाथ उपर उठाके अभिवादन वापस भी करने लगे !

जब अब थोड़ा-थोड़ा हाथ उपर की ओर बढने ही लगा है, तो कोशिस करने पर एक न एक दिन मुठ्ठी बनकर वह हाथ उपर उठेगा ही और अन्याय का प्रतिकार करेगा ही ! इतना तो परिवर्तन जनकपुर में होगा ही।

इसलिए तो कहता हूँ: जनकपुर तेरी महिमा अपार, फिर भी तुमसे ही है मुझको प्यार ।

(डा. सीके राउतको फेकबुक वालबाट साभार)