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अजीब ही हूँ मैं

–कैलाश महतो
अजीब ही तो हूँ मैं – पागल, फटहा और अज्ञानी,
गीतों को तेरे गाया नहीं मैं, यही है तेरी परेशानी ।
तानसेन हूँ मैं, कहने से तेरे मैंने कभी गाया नहीं,
गाता रहा हूँ हरपल मैं, लेकिन तुमने पहचाना नहीं ।

रागी हूँ, वैरागी भी हूँ मैं, तुम कहो तो शराबी भी हूँ मैं,
न घर का हूँ, न घाट का हूँ मैं, तुम मानो तो अनाडी भी हूँ मैं ।
मैं ही मेरा नहीं रहा अब, तुम कहते हो गाली हूँ मैं,
दवा लेकर बैठा रहा मैं, पता नहीं बिमारी हूँ मैं १

चला तो था स्नान करुँ मैं, सूख गई पानी देख मुझे,
छाँव खोजा शितलता पाने मैं, लग गई आग बगीचे में ।
डूबती नाव को गया बचाने, खुद फँस गया भँवर में मैं,
नाँव में बैठा सखा वो मेरा, छोड चला हँसकर मुझे ।

सोंचा था धोबी बनूँ मैं, देश वो निकला नंङ्गों का,
राह बनाकर पहुँचा जब मैं, रोदन सुना मैं लँङ्गडो का ।
सूरज निकले, चाँद भी निकली, देखा न कोई सितारों को,
छोड दो जीना , मर ही जाओ, क्यूँ हो रुलाते जवानी को रु